मराठियों के लिए बालासाहेब ने चलाया था ‘पुंगी बजाओ, लुंगी हटाओ’ अभियान. बच्चों ने चलाया ‘हिंदी हटाओ’ अभियान.? क्यों.?
Mumbai – 5 जुलाई 2025. शनिवार सुबह से लेकर रात तक तमाम TV Channels पर ठाकरे परिवार की डफली बजती रही. पहले Thackeray Brothers के बीच अलगाव का तो बाद में उनके भाईचारे का गुणगान होता रहा. वो क्यों अलग हुए… बीस साल बाद ऐसा क्या हुआ जो दोनों भाइयों को सारे गले शिकवे मिटा कर साथ आना पड़ा. आज हम इसी पर चर्चा करने वाले हैं. चर्चा कहां… हम तो आपको पूरे विस्तार से Thackeray’s के बारे में बताएंगे जो Actually में उनका सरनेम है भी नहीं. लेकिन इस सब के लिए हमें इतिहास के दशकों पुराने पन्ने पलटने होंगे जो Dirty Politics में कहीं खो गए हैं.
अंग्रेजी लेखक से प्ररित होकर बने ‘ठाकरे’

बात आज़ादी से पहले की है… महाराष्ट्र के पुणे में मराठी बोलने वाले एक कायस्थ परिवार में बाल ठाकरे का जन्म हुआ था. वे 9 भाई-बहनों में सबसे बड़े थे. बाल ठाकरे के पिता केशव सीताराम ठाकरे पेशे से लेखक और पत्रकार थे. बाल ठाकरे की जीवनी लिखने वालीं सुजाता आनंदन के मुताबिक उनके पिता केशव ठाकरे अंग्रेजी लेखक William Makepeace Thackeray के मुरीद हुआ करते थे. और उन्ही से प्रेरणा लेकर केशव ने अपना सरनेम ठाकरे रख लिया था. बताया जाता है कि Bal Thackeray को शुरू से ही पढ़ाई में कोई इंटरस्ट नहीं था इसलिए कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़ दी… युवावस्था में कदम रखते परिवार के कहने पर मीना ठाकरे से शादी कर ली. वो साल 1948 था जब बाल ठाकरे ने अपने भाई के साथ मार्मिक नाम से एक Weekly News Paper निकाला… इस पेपर के लिए वे खुद ही कार्टून बनाते थे… 1950 में 24 साल के Bal Thackeray ने फ्री प्रेस जर्नल में एक कार्टूनिस्ट के तौर पर काम करना शुरू कर दिया.
‘पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ’ अभियान

1960 के दशक में बंबई में ज्यादातर बड़े कारोबारों पर गुजरातियों का कब्जा था… छोटे-मोटे काम दक्षिण भारतीय और मुसलमानों ने कब्जा रखे थे. मराठियों के लिए काम-धंधे का स्कोप ना के बराबर था. Bal Thackeray ने इसी मुद्दे को उठाया और खुद को ‘मराठी माणूस’ की आवाज़ बना लिया. इस वजह से वो जल्द ही मराठियों में फेमस हो गए. साल 1966 में उन्होने शिवसेना की नींव रखी. शिवसेना ने अपना पहला मेनिफेस्टो जारी किया तो उसमें दक्षिण भारतीयों की जगह मराठियों को नौकरी देने की बात कही. उन्होने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाया पुंगी बजाओ और लुंगी हटाओ.
बढ़ती गई बालासाहेब की ताकत
शिवसेना को बने सालभर हो चुका था… पार्टी के प्रमुख थे बालासाहेब ठाकरे और बलवंत मंत्री को पार्टी का दूसरा बड़ा नेता माना जाता था. हर मंच पर दोनों बड़े नेता साथ नज़र आते थे. लेकिन जल्द ही दोनों में मतभेद होने लगे. एक वक्त ऐसा भी आया जब बलवंत मंत्री अपने भाषण में कहते थे कि शिवसेना को किसी एक शख्स के कंट्रोल से निकाल कर लोकतांत्रिक तरीके से चलाना चाहिए. उनकी ये बात शिवसैनिकों को रास नहीं आई… उन्हे लगा बलवंत Bal Thackeray के खिलाफ बोल रहे हैं. ऐसे में एक दिन बाला साहेब के खिलाफ नारेबाजी करते वक्त कुछ शिवसैनिकों ने उन्हे मंच से नीचे खींचा और जूतों से पीटने लगे. उग्र शिवसैनिकों ने उनके कपड़े फाड़ दिए. चेहरे और शरीर पर कालिख पोत कर खूब जुलूस निकाला. इससे बलवंत को बालासाहेब की ताकत का अंदाज़ा हो गया. वो ठाकरे के पैरों में गिर गए और माफी मांगने लगे.
देशभर में गूंजा शिवसेना का नाम

उसी साल 1967 में एक और बड़ी घटना घटी जिसने Bal Thackeray का नाम देश के हर कोने में पहुंचा दिया. उस वक्त महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में परेल विधानसभा से क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर कृष्णा देसाई चुनाव जीते थे. उन्हे आक्रामक तेवर और बेहतरीन भाषण शैली की वजह से जाना जाता था. वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश अकोलकर की किताब’ जय महाराष्ट्र’ में इस बारे में लिखा गया है… वो लिखते हैं -“5 जून 1970 की रात लालबाग के Lalit Rice Mill में देसाई कुछ लोगों से मिल रहे थे. तभी कुछ लोग उन्हे बुला कर बाहर ले गए. उस वक्त इलाके में बिजली नहीं थी. इसका फायदा उठाते हुए वो लोग देसाई पर जानलेवा हमला कर देते हैं, और उनकी मौत हो जाती है. सियासी गलियारे में ये चर्चा थी कि इस हत्या के पीछे शिवसेना का हाथ है. हालांकि बालासाहेब ने इस हत्या की निंदा की थी”.
चार साल में बना पहला विधायक
कृष्णा देसाई की हत्या के बाद 18 अक्टूबर 1970 को परेल विधानसभा में उपचुनाव हुए… जिसमें वाम दलों ने कृष्णा देसाई की पत्नी सरोजिनी देसाई को खड़ा किया था. कांग्रेस(R) के साथ कुल 13 वामपंथी दलों ने सरोजिनी देसाई का साथ दिया. वहीं दूसरी तरफ शिवसेना ने परेल से पार्षद वामनराव महादिक को उम्मीदवार बनाया जो Bal Thackeray के करीबियों में से एक थे. उपचुनाव में अपने उम्मीदवार को जीत दिलाने के लिए बालासाहेब ने 15 रैलियां कीं और वामपंथियों को देश विरोधी बताया. जिसका बड़ा असर हुआ. चुनाव नतीजे आए तो जीत शिवसेना उम्मीदवार की हुई. इस तरह शिवसेना बनने के 4 साल बाद शिवसेना का पहला विधायक बना. ठाकरे हर मंच से एक ही बात कहते थे, महाराष्ट्र में मराठाओं के हितों की रक्षा सबसे जरूरी है. ये बात मुंबई के हर घर में पहुंचने लगी. धीरे-धीरे हर गली मोहल्ले के दबंग युवा शिवसेना के साथ जुड़ने लगे. मुंबई में लोग उन्हे GODFATHER की तरह देखने लगे थे. ठाकरे भी हर किसी की मुसीबत और झगड़े सुलझाने लगे थे.
‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं‘
वक्त के साथ साथ शिवसैनिकों की संख्या मुंबई से साथ-साथ पूरे महाराष्ट्र में बढ़ती जा रही थी… मुंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर हो रहा था. लेकिन शिवसेना बड़ी कामयाबी की तलाश में थी. इसे देखते हुए ठाकरे ने मराठी माणूस के साथ कट्टर हिंदुत्व की आइडियोलॉजी अपनाई. 80-90 के दशक में इससे फायदा भी मिला. 1987 के दिसंबर में विले पार्ले विधानसभा सीट के लिए हुए उप-चुनाव में पहली बार शिवसेना ने हिंदुत्व का आक्रामक प्रचार किया… चुनावी अखाड़े में ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के नारे लगते रहे. शिवसेना उम्मीदवार का प्रचार करने के लिए मिथुन चक्रवर्ती और नाना पाटेकर जैसे कलाकारों को उतारा गया. लेकिन सारी तिगड़म बेकार साबित हुई… क्योंकि हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगने की वजह से चुनाव आयोग ने ठाकरे से 6 साल के लिए मतदान का अधिकार छीन लिया था.
परिवार राज और सियासी खींचतान

अब बात महाराष्ट्र में शुरू हुए परिवार राज और फिर सियासत को लेकर परिवार में होने वाली खींचतान की… साल 2000 आने तक Bal Thackeray के भतीजे Raj Thackeray पार्टी में दूसरे नंबर के नेता बन चुके थे… राज के आक्रामक तेवर और विस्फोटक बयानों को देख कर लगने लगा था कि आगे चल कर वही बालासाहेब के उत्तराधिकारी बनेंगे. क्योंकि बालासाहेब के तीन बेटे थे… जिनमें बड़े बेटे जयदेव की 1995 में मौत हो गई थी… अगले ही साल कार एक्सीडेंट में दूसरे बेटे बिंदुमाधव की भी जान चली. और तीसरे बेटे उद्धव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उन्हे फोटोग्राफी का पैशन था. लेकिन 2002 में Bal Thackeray के कहने पर पहली बार उद्धव किसी राजनीतिक कार्यक्रम में शामिल हुए. और फिर धीरे-धीरे उन्हे पार्टी की जिम्मेदारियां दी जाने लगीं. उद्धव पिता का इशारा समझ रहे थे. जैसे-जैसे उन्हे राजनीति समझ आने लगी वो एक्टिव होकर बड़े फैसले लेने लगे. उन्होने 2002 के चुनाव में Raj Thackeray के कई करीबियों के टिकट काट दिए थे. जिससे राज ठाकरे नाराज हो गए लेकिन कुछ कर नहीं पाए. चुनाव परिणाम आया तो शिवसेना और बीजेपी गठबंधन की जीत हुई.
उद्धव का कद बढ़ा, राज हुए बाहर
जीत के अगले साल ही 2003 में Bal Thackeray ने उद्धव को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया. जबकि अब तक पार्टी में सिर्फ शिवसेना प्रमुख का ही पद था. लेकिन पहली बार उद्धव के लिए कार्यकारी अध्यक्ष का नया पद बनाया गया. बाल ठाकरे के इस कदम से राज ठाकरे की अपने चाचा से नाराजगी और बढ़ गई. शिवसेना में लगातार Uddhav Thackeray का कद बढ़ता जा रहा था और राज को कोई पूछ नहीं रहा था. ठाकरे परिवार की अंदरूनी कलह निकल कर आई साल 2005 में जब राज ठाकरे ने पत्र लिखकर बालासाहेब ठाकरे से कहा – चापलूसों की चौकड़ी आपको गुमराह कर रही है… उन्होंने कोंकण लोकसभा सीट पर हार के लिए भी इस चौकड़ी को ही जिम्मेदार ठहराया था. उनका इशारा उद्धव, मिलिंद नार्वेकर और सुभाष देसाई की तरफ था. राज के बागी तेवर देख कर भी बालासाहेब शांत थे. Raj Thackeray के लिए उद्धव के साथ काम करना मुश्किल हो रहा था… ऐसे में उन्होंने दिसंबर 2005 में शिवसेना छोड़ने का फैसला किया. और अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम रहा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना.
मुसलमानों को कहा था ‘हरा ज़हर’

वहीं दूसरी तरफ ठाकरे परिवार में फूट के बाद पार्टी को मजबूती करने के लिए Bal Thackeray ने फिर से कमान अपने हाथ में ली. उन्होने फिर से मराठी और हिंदुत्व के नारे को पुरज़ोर तरीके से उठाया और संगठन में नई जान फूंक दी. यहां तक की साल 2006 में उन्होने षणमुखानंद हॉल में आयोजित शिवसेना के एक कार्यक्रम में मुसलमानों को ‘हरा जहर’ तक कह दिया था. वहीं बात करें सियासत की तो आज भले ही उद्धव ठाकरे कांग्रेस के साथ इंडिया गठबंधन में शामिल हो गए हों लेकिन Bal Thackeray हमेशा से ही कांग्रेस की आईडियोलोजी के खिलाफ थे. जीते जी उन्होने कभी कांग्रेस के साथ मंच साझा नहीं किया. साल 1989 के लोकसभा चुनाव से लेकर 2007 तक वो बीजेपी के साथ ही चुनाव लड़े और मिलकर सरकार बनाते रहे. बालासाहेब के समय से ही महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना हमेशा बड़े भाई की भूमिका में ही रही… यानी वो ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती थी और बड़े फैसलों में बाल ठाकरे की ही चलती थी. साल 2012 में बाला साहेब का निधन हो गया…
शिवसेना-भाजपा में पड़ी दरार
बालासाहेब के बाद बेटे Uddhav Thackeray ने पूरी तरह शिवसेना की कमान संभाली. 2014 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले उद्धव ने सामना को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि “शिवसेना पिछले 25 साल के गठबंधन में सड़ रही है. बीजेपी के साथ गठबंधन करके शिवसेना को नुकसान हुआ है”. उनके इस बयान के बाद दोनों दलों में खटास ला दी और गठबंधन टूट गया. नतीजा ये हुआ कि मोदी लहर के चलते उस चुनाव में 288 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी शिवसेना को बीजेपी से आधी सीटें ही मिलीं… 2014 में BJP ने 122 सीटों पर जीत दर्ज की और शिवसेना ने 63 सीटों पर. घूम फिर कर शिवसेना को वापस बीजेपी की देवेंद्र फडणवीस सरकार में शामिल होना पड़ा.
तीसरी पीढ़ी के सियासत में कदम

अब बात ठाकरे परिवार की तीसरी पीढ़ी यानि उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे की… बताया जाता है कि उद्धव ने आदित्य को साल 2010 में ही राजनीति में उतारा और उन्हें शिवसेना की युवा शाखा का अध्यक्ष बनाया था. 2019 में आदित्य पहली बार विधानसभा चुनाव लड़े और जीते. इसके बाद उद्धव ने अपनी सरकार में अपने 32 साल के बेटे आदित्य ठाकरे को कैबिनेट मंत्री बनाया.
ऑटो ड्राइवर से सीएम कुर्सी तक – शिंदे
अब बात उस शख्स की जिसने ठाकरे परिवार का ना होते हुए भी न सिर्फ उसकी सत्ता बल्कि पार्टी का सब कुछ उनसे छीन लिया. वो हैं महाराष्ट्र के मौजूदा उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे. महाराष्ट्र के सतारा जिले में पैदा होने वाले एकनाथ शिंदे के बारे में बताया जाता है कि वो 16 साल की उम्र में शिवसेना के वरिष्ठ नेता आनंद दिघे से प्रभावित होकर पार्टी में शामिल हुए थे. घर की जिम्मेदारी उठाने के लिए वो बीस साल की उम्र में बैचलर की पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद ठाणे में ऑटो रिक्शा चलाने लगे. उन्होने उसी वक्त ठाणे और आसपास के इलाके में शिवसेना को मजबूती देने के लिए अपना खून पसीना बहाया और बहुत जल्द बाल ठाकरे के करीब आ गए. 1997 में शिंदे पहली बार Thane Municipal Corporation में सदस्य चुने गए. 2004 में पहली बार विधायक बने और फिर लगातार विधानसभा चुनाव जीतते रहे. जून 2022 में एकनाथ शिंदे ने एक बड़ा धमाका किया और उद्धव ठाकरे को सबसे बड़ा झटका दे दिया.
उद्धव की ‘शिवसेना’ पर शिंदे का कब्ज़ा

जून 2022 में महाराष्ट्र में MLC के 10 सीटों के लिए चुनाव हो रहे थे. सभी पार्टियों के विधायकों की संख्या के हिसाब से जीत का फॉर्मूला तय था. ये तय था कि BJP को 4, शिवसेना को 2, कांग्रेस को 2 और NCP को भी 2 सीटों पर जीत मिलेगी. लेकिन खेल तब पलटा जब चुनाव परिणाम में बीजेपी के 5 उम्मीदवारों को जीत मिली. इससे क्लीयर हो गया था कि बैकडोर से किसी ने तो बीजेपी के समर्थन में क्रॉस वोटिंग की है. उद्धव को बताया गया कि कांग्रेस के अलावा उनकी अपनी पार्टी के भी 12 विधायकों ने BJP को वोट दिया है. उद्धव ने तुरंत विधायकों की मीटिंग बुलाई लेकिन मीटिंग से एकनाथ शिंदे समेत 12 विधायक गायब रहे… तमाम कोशिशें की गई लेकिन उद्धव एकनाथ शिंदे को नहीं मना सके. 40 से ज्यादा विधायकों ने शिंदे का साथ दिया. और उन्होने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. इस तरह 56 साल पहले बनी बालासाहेब ठाकरे की पार्टी शिवसेना फिर से टूट गई. लेकिन इस बार वो हुआ जो कभी नहीं हुआ था. पहली बार किसी बागी नेता ने पार्टी के नाम और निशान पर भी अपना दावा ठोका था. कुछ दिनों तो उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी को बचाने के लिए संघर्ष करते रहे, लेकिन चुनाव आयोग ने शिंदे गुट को असली शिवसेना माना और पार्टी का चुनाव चिन्ह ‘धनुष बाण’ शिंदे गुट को सौंप दिया. इस तरह ठाकरे परिवार के हाथ शिवसेना छीन ली गई और वो कुछ नहीं कर पाए.
हिंदू, हिंदुत्व और हिंदी में उलझे ‘ठाकरे’

अब बात ताज़ा हालात की… वर्षों तक जिस हिंदुत्व की लड़ाई बालासाहेब लड़ते रहे आज ठाकरे बंधुओं को वही हिंदुत्व रास नहीं आ रहा है. बीस साल तक आपस में सत्ता की लड़ाई लड़ने वाले Thackeray Brothers को आज हिंदी भाषा से नफरत हो रही है. वे हिंदी भाषा के खिलाफ एक जुट होकर सरकार के विरोध में उतरे और छा गए. शनिवार को मुंबई के वर्ली सभागार में दोनों भाइयों के बीच खूब प्रेम नज़र आया. दोनों ने हज़ारों मराठी कार्यकर्ताओं के सामने ‘मराठी विजय रैली’ की. हिंदी-मराठी भाषा विवाद पर भाजपा और केंद्र सरकार पर निशाना साधा. और ये दिखाने की कोशिश की, कि Thackeray’s फिर से एकजुट हो गए हैं. अब सरकार की खैर नहीं… उन्होने यहां तक कहा हमारे ऊपर हिंदी भाषा को थोपा नहीं जा सकता. अगर मराठी के लिए लड़ना गुंडागर्दी है तो हम गुंडे हैं. अब अगर ये सच है और अगर Thackeray Brothers वाकई गुंडागर्दी पर उतरने वाले हैं तो महाराष्ट्र गैर मराठियों की खैर नहीं. ऐसे में बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि जिन बालासाहेब की आइडियोलॉजी को लेकर ठाकरे ब्रदर्स सरकार और गैर मराठियों को धमका रहे हैं क्या उनकी आइडियोलॉजी में हिंदू, हिंदुत्व और हिंदी अलग-अलग थे.? या फिर ये सब कुछ सोचा समझा Political Stunt है? अगर आपके पास इस सवाल का जवाब हो तो हमें कमेंट करके ज़रूर बताएं…
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