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Lal Talab Protest — 1884 का इतिहास, 1992 में जमींदोज, अब 2025 में भूख से लड़ेगा!
Lal Talab Protest update
बुलंदशहर के बीचोंबीच जो कभी लाल पत्थरों से बना तालाब हिचकोले मारता था,
आज वहाँ कागज़ों की रजिस्ट्री और टीनशेड की दुकानें सांस ले रही हैं।
1884 में जिस तालाब को गवर्नर लॉयल के नाम से बनवाया गया,
वो आज ‘विकास’ के नाम पर दफन किया गया गड्ढा बन चुका है।
1992 में प्रशासन ने ऐसा भराव किया कि
इतिहास का मुँह बंद कर दिया गया — और दुकानों की कतारें बिछा दी गईं।
कहने को नगर का विकास हुआ,
लेकिन जनता कह रही है — “तालाब सूखा नहीं था, नीयत गीली थी!”
Amaran Anshan in Bulandshahr — जब प्रशासन सोता है, तब पत्रकार भूखे उठते हैं!
वरिष्ठ पत्रकार अशोक शर्मा,
जिन्हें शहर के लोग ‘चलता-फिरता लोकायुक्त’ कहते हैं,
अब 4 अगस्त से लाल तालाब को पुनर्जीवित करने के लिए आमरण अनशन पर बैठ रहे हैं।
उनके साथ हैं आंदोलनकारी संजय गोयल, नीरज अग्रवाल, और वो तमाम लोग
जिन्होंने कभी उस तालाब में पतंग उड़ाई थी, अब पर्चे बाँट रहे हैं।
IMA, नगर पालिका अध्यक्ष दीप्ति मित्तल,
व्यापारी संगठन — सबने इस बार तालाब के लिए कमर कस ली है।
क्योंकि पेट भर रोटियाँ मिल जाएँ, पर इतिहास अगर भूखा मर गया,
तो अगली पीढ़ी वोट तो देगी, लेकिन वोट किसे — ये तय नहीं!
Save Heritage Movement — सरकार का मौन, जनता की दहाड़! Lal Talab Protest
अब तालाब को सिर्फ खोदना नहीं है,
तालाब में दफन वो “गूंगी विकास नीति” भी बाहर निकालनी है
जो अंग्रेजों की बनाई चीज़ों से इतनी चिढ़ रखती है
जैसे अफसरों की कुर्सी बिना लैंड रिकॉर्ड के बन गई हो।
शहर के बच्चे पूछ रहे हैं —
“क्या तालाब के ऊपर दुकानें बनाकर तुम्हें नींद आती है?”
और बुज़ुर्ग बता रहे हैं कि
“जब हम उस तालाब में नाव चलाते थे, तब अफसर सिर्फ ट्रांसफर पर चलते थे!”
अब सवाल पानी का नहीं, पहचान का है।
लाल तालाब अब तालाब नहीं — एक प्रतीक है
कि कैसे सरकारें विकास के नाम पर
इतिहास को हड़पकर मॉल और मुनाफा खड़ा कर देती हैं।
अशोक शर्मा का अनशन भूख की शुरुआत नहीं,
सरकारी ज़मीर की अंतिम परीक्षा है।
अगर अब भी प्रशासन नहीं जागा,
तो अगली बार किसी “नई योजना” के शिलान्यास पर जनता पत्थर फेंकेगी, ईंट नहीं!
Lal Talab Protest — ये अनशन नहीं, बुलंदशहर की आत्मा का पुनर्जन्म है!
सरकारों को तालाब दिखाई नहीं देते, सिर्फ खाली ज़मीन नज़र आती है।
लेकिन बुलंदशहर की जनता अब उस खाली ज़मीन को गर्व से भरना चाहती है — पानी से नहीं, पुरखों की इज़्ज़त से।
लाल तालाब को फिर से जिन्दा करने की लड़ाई सिर्फ पत्रकारों की नहीं है,
ये उन हज़ारों लोगों की लड़ाई है जिनकी जड़ें उस पानी में थीं, जिसे अब रजिस्ट्री के पन्नों में सुखा दिया गया।

 
         
         
         
        