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Fatehpur Rape Case में 14 साल पुराने जख्म पर आखिरकार अदालती मरहम लगा — दोषी विजय कुमार तिवारी को 17 साल की कैद और ₹55,000 जुर्माने की सजा मिली। पर सवाल अब भी टेढ़ा है: क्या न्याय तब भी न्याय कहलाता है जब वो कब्र के किनारे आकर दस्तक देता है?
लोकेशन-फतेहपुर।हिमांशु तिवारी।
Fatehpur Rape Case: फैसले से ज्यादा फैसले में देरी शर्मनाक!
Fatehpur Rape Case फिर से साबित करता है कि भारत में इंसाफ की घड़ी ‘13 साल’ पीछे चलती है।
2010 में जो लड़की नाबालिग थी, आज शायद अपने बच्चों को स्कूल भेज रही होगी।
और अदालत अब कहती है — “हाँ, तिवारी दोषी है।”
वाह सरकार, वाह सिस्टम — जरा और देर होती तो फैसले से पहले अपराधी की तेरहवीं हो जाती।
55 हजार का जुर्माना सुनकर शायद तिवारी हँसते हुए बोले — “इतने में तो जमानत भी नहीं मिलती थी!”
कठोर सजा लिखने से सख्ती नहीं आती जनाब — जब तक सजा टाइम पर न आए, सब तमाशा लगता है।
पीड़िता की सजा उम्रकैद, पर दोषी को बस 17 साल का डील
जिस लड़की की ज़िंदगी 2010 में लूट ली गई, उसकी सजा आज भी जारी है।
लेकिनअदालत को 14 साल लगे ये तय करने में कि “विजय कुमार तिवारी बलात्कारी है।”
कितने मजे से वो बाहर रहा होगा  — फेसबुक, व्हाट्सऐप और शायद वोट डालता हुआ भी।
पीड़िता को अस्पताल पहुंचाने वाले हाथों ने शायद अब अपनी उम्मीदें भी दफना दी होंगी।
55 हजार जुर्माना? इतने में तो आजकल कोई लग्ज़री चप्पल भी नहीं आती।
और फिर हम कहते हैं: “क़ानून अंधा नहीं होता” — माफ कीजिए, ये तो कोमा में है।
Fatehpur Rape Case: वो 2 मई — जब इंसानियत ने दम तोड़ दिया था
2 मई 2010 को नाबालिग को बहला-फुसलाकर दो दरिंदे उठा ले गए।
अस्पताल पहुंची लड़की ने जो दर्द उगला, वो हर कान को शर्मिंदा करने वाला था।
लेकिन पुलिस ने तब शायद सोचा, “चलो FIR तो लिख ली, अब टाइम लगेगा!”
विजय कुमार तिवारी और अजय कुमार तिवारी — नाम में ‘कुमार’, काम में ‘हैवान’।
सुनवाई चली, गवाह आए, सबूत रखे गए — और समय बस… चलता गया।
आज जब फैसला आया, तो लगता है जैसे रेत में लिखा गया इंसाफ पढ़ने बैठे हैं।
न्याय की देरी = न्याय की हत्या — Fatehpur Rape Case इसका ज़िंदा सबूत है
कठोर कारावास सुनकर टीवी एंकर तालियाँ बजाएंगे, लेकिन जनता पूछेगी — इतनी देर क्यों?
क्या 14 साल तक खुला घूमना किसी का संवैधानिक अधिकार था या सिस्टम की सड़ांध?
पीड़िता को बचाने वाला कोई कानून नहीं था, पर तिवारी के पास “तारीख पर तारीख” थी।
अब 17 साल की सजा है — पर वो 14 साल का क्या जिसमें उसने खुलेआम जिंदगी जिया?
अदालत ने कहा — “न्याय हुआ”, पर पीड़िता शायद अब कहती है — “बहुत देर कर दी मेहरबां आते-आते।”
Fatehpur Rape Case हमें नहीं, कानून को खुद को आईने में देखने की ज़रूरत है।
ये चेतावनी है!
ये खबर नहीं, सिस्टम के चेहरे पर तमाचा है।
अगर 14 साल बाद भी हम कहते हैं “इंसाफ मिल गया”, तो शायद हमने हार मान ली है।
Fatehpur Rape Case हमें याद दिलाता है — सज़ा का मतलब टाइमिंग है, सिर्फ सालों का आंकड़ा नहीं।
जब तक कानून में स्पीड नहीं आएगी, तब तक अपराधी भी मुस्कराएगा और पीड़िता भी डरेगी।
इस देश को अदालतें नहीं, अब अलार्म चाहिए — ताकि फैसला नींद से जागकर वक्त पर आए।
वरना अगले 14 साल किसी और की बेटी के हिस्से होंगे — और हम फिर यही हेडलाइन लिख रहे होंगे।

 
         
         
         
        