संभल Alambazar — ये सिर्फ एक परंपरा नहीं, सैकड़ों दुकानदारों की रोज़ी पर हर साल गिरने वाली आफत है। रस्म निभेगी, बाज़ार उजड़ेगा, पेट पर वार होगा — और सब चुप रहेंगे।
आस्था परंपरा और अलमबाजार का बोझ
गुरुवार को संभल शहर के सब्जी मंडी में फिर वही हुआ जो सालों से होता आया है — अलम निकालने की रस्म पूरी करने के लिए नगरपालिका ने मार्केट पर बुलडोज़र चला दिया। कहीं ठेले हटे, कहीं खोखे गिरे, कहीं सब्जी के टोकरे पलटे। कहते हैं ये Alambazar की परंपरा है — लेकिन सवाल ये है कि क्या इस परंपरा की कीमत सिर्फ दुकानदार चुकाएंगे?
Alambazar से कौन जला, कौन पिघला?

सैकड़ों दुकानदारों की कमाई चार-पांच दिन के लिए धराशायी हो गई। कोई हिंदू, कोई मुस्लिम — रोज़ी-रोटी के सवाल पर सब बराबर खड़े हैं। किसी की जेब से सब्जी बिकने के पैसे गए, किसी के बच्चों की किताबों का खर्चा अटक गया। अजब बात ये कि खुद मुस्लिम दुकानदार भी मानते हैं कि Alambazar की ये परंपरा उनके नुकसान की वजह है, पर परंपरा तो परंपरा है — कहते हैं ‘चलता है!’
Alambazar में रस्म बड़ी या रोटी?
हिंदू दुकानदार कहते हैं — मेन रोड खाली है, वहीं से अलम निकाल लो, सबका भला हो जाएगा। लेकिन इस तर्क पर परंपरा भारी है। नगरपालिका आंख बंद करके हर साल मार्केट उजाड़ देती है। कोई मुआवज़ा नहीं, कोई वैकल्पिक इंतज़ाम नहीं — बस रस्म निभाओ और रोज़ी का रोना रोते रहो।
कौन सुनेगा Alambazar के पीड़ितों की आवाज़?

नगरपालिका के अफसर पूछने पर सिर्फ कंधे उचकाते हैं — पुरानी परंपरा है, हटाना ही पड़ेगा। प्रशासन कहता है — भीड़भाड़ रोकने के लिए ये करना ज़रूरी है। दुकानदार पूछते हैं — भीड़ हमारी है या तुम्हारी नीतियों की? कोई जवाब नहीं, कोई अफसर ज़िम्मेदार नहीं।
Alambazar परंपरा: सदियों से जारी नुकसान
सवाल वही है — क्या धार्मिक रस्में रोज़ी-रोटी से बड़ी हो गई हैं? क्या नगरपालिका सालों से बस परंपरा के नाम पर पेट पर लात मारती रहेगी? क्या रोज़गार और आस्था में कोई संतुलन नहीं हो सकता? हर साल संभल के छोटे दुकानदार यही दर्द छुपाकर फिर दुकान सजाते हैं — अगली बार फिर उजड़ने के लिए।
Alambazar का दर्द कौन समझेगा?

Alambazar का ये सच है — कहीं पूजा के नगाड़े बजते हैं, कहीं घर का चूल्हा बुझता है। सवाल वही है — कौन सुनेगा? कौन बोलेगा? या फिर अगली बार भी वही बुलडोज़र, वही टोकरी और वही सब्जी सड़कों पर बिखरेगी…
कब तक चलेगा Alambazar का ये खेल?

हर साल संभल के Alambazar में रोज़गार को यूँ ही कुचला जाएगा या कोई नई राह निकलेगी? क्या नगरपालिका कभी ये सोचेगी कि आस्था की आड़ में किसी की थाली खाली न हो? या फिर ये खेल यूँ ही चलता रहेगा — एक तरफ ढोल नगाड़े, दूसरी तरफ दुकानदारों का सन्नाटा। जब रस्में पेट से बड़ी हों तो सवाल कौन पूछेगा? जवाब किससे मांगा जाएगा?
शहर देख रहा है… रोज़ी का मोल चुका रहा है।
